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कवि परिचय

कवि – कबीरदास
जन्म – (लहरतारा , काशी )
मृत्यु – ( मगहर , उत्तरपरदेश )


पाठ प्रवेश


साखी ‘ शब्द ‘ साक्षी ‘ शब्द का ही (तद्भव ) बदला हुआ रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है। जिसका अर्थ होता है -प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थात जो ज्ञान सबको स्पष्ट दिखाई दे। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु द्वारा शिष्य को प्रदान किया जाता है। संत ( सज्जन ) सम्प्रदाय (समाज ) मैं अनुभव ज्ञान (व्यवाहरिक ज्ञान ) का ही महत्व है -शास्त्रीय ज्ञान अर्थात वेद , पुराण इत्यादि का नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र बहुत अधिक फैला हुआ था अर्थात कबीर जगह -जगह घूम कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। इसलिए उनके द्वारा रचित साखियों मे अवधि , राजस्थानी , भोजपुरी और  पंजाबी भाषाओँ के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिंचड़ी ‘ अर्थात अनेक भाषाओँ का मिश्रण कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्क्ड़ी भी कहा जाता है।
साखी ‘ वस्तुतः (एक तरह का ) दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा अर्थात पहले व तीसरे चरण में 13 वर्ण व दूसरे व चौथे चरण में 11 वर्ण के मेल से 24 मात्राएँ। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य को सामने रख कर ही गुरु शिष्य  को जीवन के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी अधिक प्रभावशाली होगी, उतनी ही अधिक याद  रहेगी।


 व्याख्या


1) ऐसी बाँणी बोलिये ,मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै ,औरन कौ सुख होइ।।


शब्दार्थ-


बाँणी – बोली
आपा – अहम् (अहंकार )
खोइ – त्याग करना
सीतल – शीतल ( ठंडा ,अच्छा )
औरन – दूसरों को
होइ -होना

व्याख्या  - प्रस्तुत साखी में कवि ने मीठी/मधुर वाणी की महत्ता के बारे में बताया है कि - 

कवि के अनुसार हमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए जो कि अहंकार से रहित हो क्योकि अहंकार रहित वाणी बोलने से हमारा स्वयं का शरीर भी शांत व शीतल रहता है तथा दूसरे सुनने वाले को भी सुख व आनंद की अनुभूति होती है।

 

 

 

2) कस्तूरी कुंडली बसै ,मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि- घटि राँम है , दुनियां देखै नाँहिं।।


शब्दार्थ-

कुंडली – नाभि
मृग – हिरण
घटि घटि – कण-कण

व्याख्या  - प्रस्तुत साखी में  कवि ने ईश्वर के कण -कण में व्याप्त होने  की महिमा को स्पष्ट किया है- 

जिस प्रकार हिरण की नाभि में कस्तूरी विद्यमान रहती है लेकिन इस बात से अनभिज्ञ/अनजान  हिरण उस कस्तूरी की सुगंध को पाने के लिए जंगल मे भटकता रहता है ठीक इसी प्रकार हम मनुष्य  ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने धार्मिक स्थलों जैसे मदिर, मस्जिद आदि में ढूँढने का प्रयास  करते हैं जबकि ईश्वर तो कण-कण में बसे/व्याप्त है। 

 

 

3) जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि हैं मैं नांहि।
सब अँधियारा मिटी गया , जब दीपक देख्या माँहि।।


शब्दार्थ-

मैं – अहंकार
हरि – प्रभु
अँधियारा – अंधकार

व्याख्या  - प्रस्तुत साखी में कवि ने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को स्पष्ट किया है-

 कवि के अनुसार जब तक मनुष्य में अहंकार का भाव रहता है, तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता और जब उसके हृदय में ईश्वर का वास होता है तब अहंकार का भाव समाप्त हो जाता है। अर्थात जब मनुष्य ईश्वर भक्ति में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है तब उसके अदर अहंकार का भाव शेष नही रहता । जिस प्रकार दीपक के जलते ही चारो ओर का अंधकार मिट जाता है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर भक्ति के मार्ग पर चलने से मनुष्य के हृदय में व्याप्त अंहकार रूपी अंधकार मिट जाता है

 

4) सुखिया सब संसार है , खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है , जागै अरु रोवै।।


शब्दार्थ-

सुखिया – सुखी
अरु – अज्ञान रूपी अंधकार
सोवै – सोये हुए
दुखिया – दुःखी
रोवै – रो रहे

व्याख्या  - प्रस्तुत साखी में कवि ने सांसारिक विषय वासनाओ में लिप्त लोगो पर व्यंग्य किया है तथा ईश्वर भक्ति को परम सुख स्वीकारा है - 

कवि कहते है कि संसार के लोग सुखी है, वे खाते हैं और सो जाते है तथा इसी में खुश हो जाते है, जबकि कवि दुखी है वे जागते है और रोते है । ( ईश्वर प्राप्ति के लिए तथा लोगों की अज्ञानता को देखकर )

                                                                                                                                              

 

5) बिरह भुवंगम तन बसै , मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै ,जिवै तो बौरा होइ।।


शब्दार्थ-

बिरह – बिछड़ने का गम
भुवंगम -भुजंग , सांप
बौरा – पागल

व्याख्या  - ईश्वर वियोगी की मानसिक स्थिति के बारे में बताया है - 

जब अपनो से बिछुडने का दुख मनुष्य के शरीर मे साँप बनकर व्याप्त हो जाता है/लोटने लगता है, तो उसपर न तो कोई मंत्र असर करता है और न ही कोई दवा उसकी पीड़ा को कम कर सकती है । इसी प्रकार राम अर्थात् ईश्वर वियोग मे मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और यदि वह जीवित रहता भी है तो उसकी स्थिति पागलो जैसी हो जाती है।

 

6) निंदक नेड़ा राखिये , आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना , निरमल करै सुभाइ।।


शब्दार्थ-

निंदक – निंदा करने वाला
नेड़ा – निकट
आँगणि – आँगन
साबण – साबुन
निरमल – साफ़
सुभाइ – स्वभाव

व्याख्या  - निंदक की महत्ता को बताया गया है -

कवि कहते हैं कि हमें हमेशा निंदा/आलोचना करने वाले व्यक्तियो को अपने निकट रखना चाहिए | उनके लिए अपने घर के ऑगन में एक कुटी बनवा देनी चाहिए ताकि उनके द्वारा बताई गई बुराइयो /गलतियो को सुधारकर हम अपने स्वभाव को बिना साबुन व पानी की मदद के साफ कर सके।

 

 

 

 

7) पोथी पढ़ि – पढ़ि जग मुवा , पंडित भया न कोइ।
ऐकै अषिर पीव का , पढ़ै सु पंडित होइ।


शब्दार्थ-

पोथी – पुस्तक/ मोटी-मोटी किताबे
मुवा – मरना
भया – बनना
अषिर – अक्षर
पीव – प्रिय

व्याख्या  - पुस्तकीय ज्ञान को महत्त्व न देकर ईश्वरीय प्रेम को महत्त्व दिया है-

कवि के अनुसार मोटी-मोटी किताबे पढ़कर न जाने संसार के कितने लोग मृत्यु को प्राप्त हो गए किंतु कोई भी ज्ञानी/विद्वान नहीं बन सका। यदि किसी व्यक्ति ने ईश्वर प्रेम/भक्ति का एक भी अक्षर पढ़ लिया तो वह पडित/ ज्ञानी बन जाता है  अर्थात् ईश्वरीय प्रेम ही एकमात्र सत्य है और इसे जानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी है।

 

 

8) हम घर जाल्या आपणाँ , लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।


शब्दार्थ-

जाल्या – जलाया
आपणाँ – अपना
मुराड़ा – जलती हुई लकड़ी , ज्ञान
जालौं – जलाऊं
तास का – उसका

व्याख्या  - मोह-माया के बंधन से मुक्न होने की सीख दी है-

कवि कहते हे कि उन्होंने अपने मोह-माया/ बुराईयो रूपी घर को जलाकर ज्ञान प्राप्त कर लिया है तथा अब उनके हाथो में मशाल  अर्थात् ज्ञान है। अब वे उसका मोह-माया रूपी घर जलाएँगे जो उनके साथ चलना चाहता है ।

  

1) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

प्रश्न 1.
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर-
मीठी वाणी बोलने से हमारे मन के क्रोध व अंहकार के भाव समाप्त हो जाते हैं जिससे सुनने वालों पर बात का अनुकूल प्रभाव पड़ता है तथा उनका चित्त प्रसन्न हो जाता है और उन्हे सुख व आनंद की अनुभूति होती है तथा वही मीठी व अहंकाररहित वाणी हमारे स्वभाव को भी शांत  रखकर हमारे तन को शीतलता  प्रदान करती है।



प्रश्न 2.
दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
दीपक में एक प्रकाशपुंज होता है जिसके प्रभाव के कारण अंधकार नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार ईश्वरीय ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश फैलते ही मन मे व्याप्त अज्ञान व अहंकार रूपी अंधकार समाप्त हो जाता है।
साखी में 'दीपक' ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान की तुलना दीपक से तथा अज्ञान की तुलना अंधकार से की गई है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश अंधकार को मिटा देता है, उसी प्रकार जब ज्ञान की लौ दिखाई देती है तब अज्ञान रूपी अंधकार स्वतः मिट जाता है। ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित होने पर व्यक्ति का 'अहं' मिट जाता है और 'हरि' अर्थात् परमात्मा का साक्षात्कार सहज हो जाता है। 

प्रश्न 3.
ईश्वर कण- कण मे व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते ?
उत्तर-
ईश्वर कण- कण मे व्याप्त है पर हम उन्हें  अपनी अज्ञानता तथा इस वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण नहीं देख पाते। 
इसी अज्ञानता के कारण  ईश्वर को दूर-दूर तक खोजने जाते हैं।मंदिर-मस्जिदों तथा तीथों में खोजते हैं, जबकि वह हमारे अंतःकरण में बसे हुए है।  जिस प्रकार हिरण को अपने नाभि की कस्तूरी का पता नहीं चलता और वह उसकी सुगंध के कारण उसे पाने के लिए जंगलों में भटकता है, इसी प्रकार मनुष्य अपने हृदय में बसे परमात्मा को अपने  अज्ञानवश समझ नहीं पाता और उसे अन्य स्थानों पर ढूँढ़ता फिरता है। ज्ञान होने पर मनुष्य जान जाता है कि ईश्वर तो कण-कण में समाए हुए हैं। आत्मा परमात्मा का ही अंश है। आत्मा को पहचानना परमात्मा को प्राप्त करने के समान ही है।

प्रश्न 4.
संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संसार में वह व्यक्ति सुखी है जो प्रभु प्राप्ति के प्रयास से दूर रहकर सांसारिक विषयों में डूबकर आनंदपूर्वक खाता तथा सोता है (सांसारिक सुखों का भोग करते हैं) अर्थात सांसारिक लोग। इसके विपरीत वह व्यक्ति दुखी है जो प्रभु को पाने के लिए तड़प रहा है, उनके वियोग मे जाग रहा है अर्थात् कवि। 
यहाँ ‘सोना’ अज्ञानता\प्रभु प्राप्ति के प्रयासों को न करना और ‘जागना’ ज्ञान/प्रभु प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहने का प्रतीक है। इसका प्रयोग यहाँ मानव को जीवन में सांसारिक विषय-वासनाओं से दूर करने तथा ईश्वर भक्ति मार्ग के प्रति सचेत करने के लिए किया गया है |

प्रश्न 5.
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है? क्या आप उनके विचार से सहमत है?
उत्तर-

अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने निंदक को अपने निकट रखने अर्थात अपने  घर के आँगन में कुटी बनवाकर रखने का सुझाव दिया है। |निंदक की आलोचना से व्यक्ति अपनी गलतियों और कमियों के प्रति सजग होकर उन्हें दूर करने या सुधारने के लिए प्रयासरत हो जाता है तथा  निंदा के भय से गलत काम करने से कतराता है ।अनुचित काम न करने से चित्त पवित्र एवं दोषरहित हो जाता है और  धीरे- धीरे अपने दुर्गुणों और कमियों से व्यक्ति मुक्ति पा जाता है और अपने स्वभाव को बिना साबुन व पानी के स्वच्छ व निर्मल बना लेता है।

मेरे विचार में यह उपाय सर्वथा कारगर है क्योकि जब निंदक की निंदा की तलवार हम पर लटकी रहेगी तब हम गलत काम करने से बच जाएंँगे।


प्रश्न 6.
‘ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ’–इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर-
‘ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ’ पंक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि संसार में ईश्वरीय प्रेम ही सत्य है। उसे पढ़े या जाने बिना कोई भी पंडित (ज्ञानी) नहीं बन सकता है अर्थात् वास्तविक ज्ञानी वही है जिसने ईश्वर प्रेम का एक अक्षर भी पढ़ लिया हो |

प्रश्न 7.
कबीर की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
कबीर की साखियों की भाषा की विशेषता है - 
कबीर की साखियों की भाषा जन भाषा है अर्थात उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपनी सधुक्कड़ी भाषा द्वारा साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया है। इनकी साखियों मे अवधी,पंजाबी,ब्रज,राजस्थानी तथा भोजपुरी आदि भाषाओं का प्रयोग किया गया है इसलिए इनकी भाषा को पंचमेल खिचडी भी कहा जाता है | 
इनकी काव्य भाषा में अनुप्रास व उपमा आदि अलंकारों का सटीक प्रयोग किया गया है | 
इन्होने देशज शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग किया है |



HARSH LATA ATRI

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