मनुष्यता || मनुष्यता कक्षा 10 कविता || स्पर्श || गद्य कक्षा 10 || कवि परिचय, पाठ प्रवेश, पाठ सार, पद, व्याख्या, शब्दार्थ, प्रश्न उत्तर ||
कक्षा 10
स्पर्श
गद्य
कवि - मैथिलीशरण
गुप्त
जन्म - 1886(
चिरगाँव )
मृत्यु – 1964
गुप्तजी ने गांधीजी द्वारा चलाए गए
स्वाधीनता आंदोलन में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा जेल भी गए | इन्हें राष्ट्र कवि
होने का सम्मान प्राप्त हुआ | गुप्तजी रामभक्त होने के साथ-साथ मानवतावादी
विचारधारा में विश्वास करने वाले कवि हैं |
रचनाएँ – साकेत, पंचवटी, द्वापर,
जयद्रथ-वध, यशोधरा आदि
भाषा-शैली – गुप्तजी ने सीधी-सरल खड़ी बोली को अपनाया है ,
मनुष्यता पाठ प्रवेश
प्रकृति के अन्य
प्राणियों की तुलना में मनुष्य में सोचने की शक्ति अधिक होती है। वह अपने ही नहीं दूसरों
के सुख - दुःख का भी
ख्याल रखता है और दूसरों के लिए
कुछ करने में समर्थ होता है। जानवर जब चरागाह में जाते हैं तो केवल अपने लिए चर कर
आते हैं, परन्तु मनुष्य ऐसा
नहीं है। वह जो कुछ भी कमाता है ,जो कुछ भी बनाता है ,वह दूसरों के लिए
भी करता है और दूसरों की सहायता से भी करता है।
प्रस्तुत कविता में कवि केवल उन मनुष्यों को महान मानता है जो अपनों के सुख - दुःख से पहले दूसरों की चिंता करते हैं। वह मनुष्यों
में ऐसे गुण चाहता है जिसके कारण कोई भी मनुष्य इस मृत्युलोक से चले जाने के बाद भी सदियों तक दूसरों की यादों में
रहता है अर्थात वह मृत्यु के बाद भी अमर रहता है। वे गुण हम इस कविता में जानेंगे|
इस कविता में कवि ने मनुष्यता का सही अर्थ
समझाने का प्रयास किया है। पहले भाग में कवि कहता है कि मृत्यु से नहीं डरना
चाहिए क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है पर हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग हमें
मृत्यु के बाद भी याद रखें। असली मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए जीना व मरना सीख
ले। दूसरे भाग में कवि कहता है कि हमें उदार बनना चाहिए क्योंकि उदार मनुष्यों का
हर जगह गुण गान होता है। मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों की चिंता करे। तीसरे भाग
में कवि कहता है कि पुराणों में उन लोगों के बहुत उदाहरण हैं जिन्हे उनकी
त्याग भाव के लिए आज भी याद किया जाता है।अत: सच्चा मनुष्य वही है जो त्याग
भाव जान ले। चौथे भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया और करुणा का भाव
होना चाहिए, मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए
मरता और जीता है। पांचवें भाग में कवि कहना चाहता है कि यहाँ कोई अनाथ नहीं
है क्योंकि हम सब उस एक ईश्वर की संतान हैं। हमें भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना
चाहिए।छठे भाग में कवि कहना चाहता है कि हमें दयालु बनना चाहिए क्योंकि दयालु और
परोपकारी मनुष्यों का देवता भी स्वागत करते हैं। अतः हमें दूसरों का परोपकार व
कल्याण करना चाहिए।सातवें भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के बाहरी कर्म अलग अलग
हो परन्तु हमारे वेद साक्षी है की सभी की आत्मा एक है ,हम सब एक ही ईश्वर की संतान है| अतः सभी मनुष्य भाई -बंधु हैं
और मनुष्य वही है जो दुःख में दूसरे मनुष्यों के काम आए।अंतिम भाग में कवि कहना
चाहता है कि विपत्ति और विघ्न को हटाते हुए मनुष्य को अपने चुने हुए रास्तों पर सहर्ष
चलना चाहिए ,आपसी समझ को बनाए रखना चाहिए और भेदभाव
को नहीं बढ़ाना चाहिए| ऐसी सोच वाला मनुष्य ही अपना और दूसरों का कल्याण और
उद्धार कर सकता है।
पद
(1)
विचार लो
कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें
सभी।
हुई न यों
सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके
लिए।
वही पशु-
प्रवृति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के
लिए मरे।।
शब्दार्थ -
मर्त्य - मृत्यु
यों - ऐसे
वृथा -
बेकार
प्रवृत्ति –
आदत
व्याख्या
-: कवि कहते है कि हमें यह जान लेना चाहिए कि हम मरणशील है तथा मृत्यु का होना
निश्चित है इसलिए हमें मृत्यु से डरना नहीं चाहिए। परंतु
हमारी ऐसी सुमृत्यु होनी चाहिए जिससे कि लोग हमें मरने के बाद भी याद रखे। यदि
हमारी ऐसी सुमृत्यु नहीं होती तो हमारा जीना और मरना दोनों बेकार है । मर कर भी वह
मनुष्य कभी नहीं मरता जो अपने लिए नहीं अपितु दूसरों के लिए जीता है |लेकिन जो केवल अपने लिए ही जीते है ऐसे व्यक्ति
तो पशु के समान है क्योंकि अपने
लिए तो जानवर ही जीते हैं। असल मनुष्य तो वह है जो दूसरों की भलाई करे, उनके लिए
जिए | अत: कवि के अनुसार जो मनुष्य दूसरों की चिंता करे वही मनुष्य कहलाने योग्य है।
(2)
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा
कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को
समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है
कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
बखानती - गुण गान करना
धरा - धरती
कृतघ्न - ऋणी , आभारी
सजीव - जीवित
अखण्ड - जिसके टुकड़े न किए जा सकें
असीम – पूरा
व्याख्या -: कवि कहते है कि जो मनुष्य अपने पूरे जीवन में दूसरों की चिंता करता है उस महान व्यक्ति की कथा का गुण गान सरस्वती अर्थात पुस्तकों में भी किया जाता है तथा उस महान व्यक्ति के समस्त संसार के लोग आभारी रहते है तथा उस व्यक्ति की बातचीत हमेशा जीवित व्यक्ति की तरह की जाती है और पूरी सृष्टि उसकी पूजा करती है। कवि कहते है कि जो व्यक्ति पूरे संसार को अखण्ड भाव और भाईचारे की भावना में बाँधता है तथा जों दूसरों के लिए जीता है वही व्यक्ति सही मायने में मनुष्य कहलाने योग्य होता है।
(3)
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने
दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण
ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है
कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
क्षुधार्त - भूख से परेशान
करस्थ -
हाथ की
परार्थ -
पूरा
अस्थिजाल -
हड्डियों का समूह
उशीनर
क्षितीश - उशीनर देश के राजा शिबि
सहर्ष -
ख़ुशी से
शरीर चर्म
- शरीर का कवच
व्याख्या -: प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पौराणिक कथाओं
का उदाहरण दिया है | भूख से व्याकुल रंति देव ने माँगने पर अपने हाथ में रखा हुआ
भोजन का थाल भी दे दिया | दधीचि ने परोपकार के लिए अपनी अस्थियों तक को वज्र बनाने
के लिए देवताओं को दान में दे दिया था | राजा उशीनर ने कबूतर की जान बचाने के लिए
अपने शरीर का माँस बहेलिए को दे दिया और वीर कर्ण ने अपना शारीरिक रक्षा कवच दान
कर दिया | अत: नश्वर शरीर के लिए मनुष्य को भयभीत नहीं होना चाहिए |
(4)
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ -
सहानुभूति - दया, करुणा
महाविभूति
- सब से बड़ी सम्पति
वशीकृता -
वश में करने वाला
मही -
ईश्वर
विरुद्धवाद
- खिलाफ होना
व्याख्या -: कवि कहते हैं कि मनुष्य के मन में दया, सहानुभूति व करुणा का भाव होना चाहिए,यही सबसे बड़ा धन है। स्वयं ईश्वर भी ऐसे लोगों के साथ रहते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण महात्मा बुद्ध हैं जिनसे लोगों का दुःख नहीं देखा गया तो वे लोक कल्याण के लिए संसार के नियमों के विरुद्ध चले गए। इसके लिए क्या पूरा संसार उनके सामने नहीं झुकता अर्थात उनके दया भाव व परोपकार के कारण आज भी उनको याद करते हैं तथा उनकी पूजा की जाती है।अत: उदार उस को कहा जाता है जो परोपकार करता है और वही मनुष्य ,मनुष्य कहलाता है जो दूसरों के लिए जीता है और मरता है।
(5)
रहो न भूल के कभी मदांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ -
मदांघ - घमण्ड
तुच्छ -
बेकार
सनाथ -
जिसके पास अपनों का साथ हो
अनाथ -
जिसका कोई न हो
चित्त - मन
में
त्रिलोकनाथ
- ईश्वर
दीनबंधु -
ईश्वर
अधीर – व्याकुल
व्याख्या -: कवि कहते है कि भूल कर भी कभी संपत्ति या यश पर घमंड नहीं करना चाहिए। इस बात पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए कि हमारे साथ हमारे अपनों का साथ है क्योंकि कवि कहते है कि यहाँ कौन सा व्यक्ति अनाथ है ,उस ईश्वर का साथ सब के साथ है। वह बहुत दयावान है उनका हाथ सबके ऊपर रहता है। वह व्यक्ति भाग्यहीन है जो प्रभु के रहते हुए भी व्याकुल रहता है | मनुष्य वही व्यक्ति कहलाता है जो इन सब चीजों से ऊपर उठ कर सोचता है।
(6)
अनंत अंतरिक्ष में अनंत
देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यां कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ -
अनंत - जिसका कोई अंत न हो
अंतरिक्ष -
आकाश
समक्ष -
सामने
परस्परावलंब
- एक दूसरे का सहारा
अमर्त्य
-अंक - देवता की गोद
अपंक -
कलंक रहित
व्याख्या –: कवि कहते हैं कि परोपकारी व दयालु मनुष्यों का सामने से खड़े होकर अपनी भुजाओं को फैलाकर देवता स्वागत करते हैं। इसलिए दूसरों का सहारा बनो और सभी को साथ में लेकर आगे बढो। कवि कहते है कि सभी कलंक रहित हो कर देवताओं की गोद में बैठो अर्थात यदि कोई बुरा काम नहीं करोगे तो देवता तुम्हे अपनी गोद में ले लेंगे अर्थात् कलंकरहित होकर तरक्की करो व आगे बढ़ो | केवल अपने लिए ही नहीं जीना चाहिए अपितु अपना और दूसरों का कल्याण व उद्धार करना चाहिए क्योंकि इस मरणशील संसार में मनुष्य वही है जो मनुष्यों का कल्याण करे व परोपकार करे।
(7)
'मनुष्य मात्र बन्धु हैं' यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ -
बन्धु - भाई बंधु
विवेक -
समझ
स्वयंभू -
परमात्मा, स्वयं उत्पन्न होने वाला
अंतरैक्य -
आत्मा की एकत, अंतःकरण की एकता
प्रमाणभूत
- साक्षी
व्यथा – दुःख, कष्ट
व्याख्या -: कवि कहते हैं कि सबसे बड़ी समझदारी इस बात को समझने में है कि सभी मनुष्य भाई-बंधु हैं | परमात्मा या ईश्वर हम सभी के पिता है, अर्थात सभी मनुष्य उस एक ईश्वर की संतान हैं। बाहरी कारणों के फल अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कर्म भले ही अलग अलग हों परन्तु हमारे वेद इस बात के साक्षी है कि सभी की आत्मा में एक ही परमात्मा का निवास है । कवि कहते है कि यदि भाई ही भाई के दुःख व कष्टों का नाश नहीं करेगा तो उसका जीना व्यर्थ है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो बुरे समय में दूसरे मनुष्यों के काम आता है।
(8)
चलो अभीष्ट मार्ग में
सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ,
बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क
एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ -
अभीष्ट - इच्छित
मार्ग –
रास्ता
सहर्ष - अपनी
खुशी से
विपत्ति, विघ्न - संकट, बाधाएँ
अतर्क - तर्क से परे
सतर्क - सावधान यात्री
व्याख्या –: कवि कहते हैं कि मनुष्य को अपनी इच्छा से चुने हुए मार्ग में ख़ुशी ख़ुशी चलना चाहिए,रास्ते में कोई भी संकट या बाधाएं आएँ तो उन्हें हटाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। मनुष्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपसी समझ न बिगड़े और भेद भाव भी न बढे।हमारी सामर्थ्यता तभी सिद्ध होगी जब हम बिना किसी तर्क वितर्क के सभी को एक साथ ले कर आगे बढ़ेंगे व अपने साथ-साथ दूसरों का भी भला करेंगे ,ऐसा करने पर ही हम सही मायनों में मनुष्य कहलाने के लायक होंगे |
प्रश्न अभ्यास
क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिये -
प्रश्न 1 -: कवि ने कैसी मृत्यु को समृत्यु
कहा है?
उत्तर-: कवि ने ऐसी मृत्यु को समृत्यु कहा है जिसमें मनुष्य अपने से पहले दूसरे की चिंता करता है और परोपकार की राह को चुनता है | जिससे उसे मरने के बाद भी याद किया जाता है|
प्रश्न 2 -: उदार व्यक्ति की पहचान कैसे हो
सकती है?
उत्तर -:
उदार व्यक्ति परोपकारी होता है, वह अपने से पहले दूसरों की चिंता करता है और लोक कल्याण के लिए
अपना जीवन त्याग देता है।
प्रश्न 3 -: कवि ने दधीचि, कर्ण आदि महान व्यक्तिओं के
उदाहरण दे कर 'मनुष्यता ' के लिए क्या उदाहरण दिया है?
उत्तर -:
कवि ने दधीचि, कर्ण आदि
महान व्यक्तिओं के उदाहरण दे कर 'मनुष्यता ' के लिए यह सन्देश दिया है कि परोपकार करने वाला ही असली मनुष्य
कहलाने योग्य होता है। मानवता की रक्षा के लिए दधीचि ने अपने शरीर की सारी
अस्थियां दान कर दी थी,कर्ण ने
अपनी जान की परवाह किए बिना अपना कवच दे दिया था जिस कारण उन्हें आज तक याद किया
जाता है। कवि इन उदाहरणों के द्वारा यह समझाना चाहते है कि परोपकार ही सच्ची
मनुष्यता है।
प्रश्न 4 -: कवि ने किन पंक्तियों में यह व्यक्त किया है कि हमें गर्व - रहित जीवन व्यतीत करना चाहिए?
उत्तर -:
कवि ने निम्नलिखित पंक्तियों में गर्व रहित जीवन व्यतीत करने की बात कही है-:
रहो न भूल
के कभी मगांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान
आपको करो न गर्व चित्त में।
अर्थात
सम्पति के घमंड में कभी नहीं रहना चाहिए और न ही इस बात पर गर्व करना चाहिए कि आपके
पास आपके अपनों का साथ है क्योंकि इस दुनिया में कोई भी अनाथ नहीं है सब उस परम
पिता परमेश्वर की संतान हैं।
प्रश्न 5 -: ' मनुष्य मात्र बन्धु है ' से आप क्या समझते हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -: ' मनुष्य मात्र बन्धु है ' अर्थात हम सब मनुष्य एक ईश्वर की संतान हैं अतः हम सब भाई - बन्धु हैं। भाई -बन्धु होने के नाते हमें भाईचारे व आत्मीयता के साथ रहना चाहिए और एक दूसरे को साथ में लेकर आगे बढ़ना व प्रगति करनी चाहिए।
प्रश्न 6 -: कवि ने सबको एक होकर चलने की
प्रेरणा क्यों दी है ?
उत्तर -: कवि ने सबको एक होकर चलने की प्रेरणा इसलिए दी है ताकि आपसी समझ न बिगड़े और न ही भेदभाव बढे। मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं को दूर किया जा सके |सब एक साथ एक होकर चलेंगे तो अपनेपन व आत्मीयता की भावना बढ़ेगी ,शत्रुता व भिन्नता दूर हो जाएगी तथा साथ ही साथ मनुष्यता की भावना को भी बढ़ावा मिलेगा जिससे सभी की सारी बाधाएँ मिट जाएँगी और सबका कल्याण और समृद्धि होगी।
प्रश्न 7 -: व्यक्ति को किस तरह का जीवन
व्यतीत करना चाहिए ?इस कविता के आधार पर लिखिए।
उत्तर -: व्यक्ति
को अपने से पहले दूसरों के दुखों की चिंता करते हुए,मनुष्य मात्र को बंधु मानते
हुए तथा दूसरों के हित के लिए अपना सर्वस्व त्यागकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए।अपने
अभीष्ट मार्ग पर सहर्ष निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए |
प्रश्न 8 -: ' मनुष्यता ' कविता के द्वारा कवि क्या सन्देश देना
चाहता है ?
उत्तर -: 'मनुष्यता ' कविता के
माध्यम से कवि मानवीय एकता,सहानुभूति, दया ,करुणा,परोपकार व सद्भावना का संदेश
देना चाहते हैं| कवि पौराणिक कथाओं के पात्र दधीचि, कर्ण, रंतिदेव आदि के जीवन से मनुष्य को अतुलनीय त्याग की प्रेरणा देना चाहते हैं| कवि
चाहते हैं कि मनुष्य समस्त संसार में अपनत्व की अनुभूति करे|जीवन काल में ऐसे कर्म
करे जिससे मरने के बाद भी उसे याद किया जाए अर्थात् उसका यश व अच्छे कर्म सदैव उसे
जीवित रखें| अत: इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से जीवन जीना, दूसरों के काम आना व
स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी ऊपर उठाने की मनुष्यता की सीख कवि प्रत्येक प्राणी
को देना चाहते हैं |
ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिये-
1) सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं
मही।
विरुद्धभाव
बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका
रहा ?
उत्तर -:
कवि इन पंक्तियों में कहना चाहते है कि मनुष्यों के मन में दया व करुणा का भाव
होना चाहिए, यही सबसे
बड़ा धन है। स्वयं ईश्वर भी ऐसे लोगों के साथ रहते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण
महात्मा बुद्ध हैं जिनसे लोगों का दुःख नहीं देखा गया तो वे लोक कल्याण के लिए
दुनिया के नियमों के विरुद्ध चले गए। इसके लिए क्या पूरा संसार उनके सामने नहीं
झुकता अर्थात उनके दया भाव व परोपकार के कारण आज भी उनको याद किया जाता है और उनकी
पूजा की जाती है।
2) रहो न भूल के कभी मदांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त
में।
अनाथ कौन
है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल
हाथ हैं।
उत्तर -:
कवि इन पंक्तियों में कवि कहना चाहते है कि भूल कर भी कभी संपत्ति या यश पर
घमंड नहीं करना चाहिए। इस बात पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए कि हमारे साथ हमारे
अपनों का साथ है क्योंकि कवि के अनुसार यहाँ प्रत्येक व्यक्ति सनाथ है , उस ईश्वर का साथ सब के साथ है तथा
वह ईश्वर बहुत दयावान है व उनका हाथ सबके ऊपर रहता है।
3) चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते
हुए।
घटे न
हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
उत्तर -:
कवि इन पंक्तियों में कहना चाहता है कि मनुष्यों को अपनी इच्छा से चुने हुए मार्ग
में ख़ुशी ख़ुशी चलना चाहिए,रास्ते में कोई भी संकट या बाधाएं आये उन्हें हटाते चले
जाना चाहिए। मनुष्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपसी समझ न बिगड़े और भेद भाव न
बड़े। बिना किसी तर्क वितर्क के सभी को एक साथ ले कर आगे बढ़ना चाहिए तभी यह संभव
होगा कि मनुष्य दूसरों की उन्नति और कल्याण के साथ अपनी समृद्धि भी कायम करे।
HARSH LATA ATRI
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